Wednesday, December 31, 2014

शाबाश धौनी

                                              धर्मेन्द्र मोहन पंत 
        वह 28 मार्च 2006 का दिन था। फिरोजशाह कोटला में भारत की पहले वनडे में जीत के बाद मैन आफ द मैच हरभजन सिंह को इनाम में मिली बाइक पर लंबे बालों वाला शख्स सवार होता है और मैदान का चक्कर लगाने लग जाता है। मीडिया बाक्स में बैठा हर व्यक्ति क्रेजी हो जाता है। मैं भी। यह महेंद्र सिंह धौनी से एक तरह से पहली मुलाकात थी। वह तब तक हालांकि पाकिस्तान के खिलाफ 148 और श्रीलंका के खिलाफ नाबाद 183 रन बनाकर मशहूर हो चुके थे। दिल्ली से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित फरीदाबाद  के नाहरसिंह स्टेडियम में धौनी के साथ बाइक पर पीछे बैठने की बारी सुरेश रैना की थी। धौनी के बाइक प्रेम को लेकर चर्चा होने लगी थी लेकिन यह उनके स्वच्छंद  व्यवहार का एक पहलू भी था जो उनकी बल्लेबाजी में हमेशा दिखा। इसके बाद पत्रकार वार्ताओं में कई बार धौनी से रू ब रू होने का मौका मिला। सवालों के अनुरूप उनके चेहरे के भाव कुछ बदलते रहते थे लेकिन मुस्कान हमेशा बनी रहती थी। यह मुस्कान उस सीमा रेखा लिये थी जिसके बारे में वह हमेशा जानते थे कि इसे कब लांघना है और कब नहीं। मैंने उन्हें कभी इस रेखा को लांघते हुए नहीं देखा। वह जानते थे कि मीडिया का काम खबरें देना और खबरों के अंदर से कुछ नया निकालना है और उनका काम खेलना। इसलिए उन्होंने मीडिया से हमेशा स्पष्ट दूरी बनाये रखी। बस काम की बातें और कुछ नहीं। 
          और मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड पर भारत और आस्ट्रेलिया के बीच तीसरे टेस्ट मैच की समाप्ति के बाद भी ऐसा ही कुछ हुआ। धौनी पत्रकारों के सवालों के जवाब देने के लिये आये। मैच को लेकर बातें हुई लेकिन वह बड़ी खबर बाद के लिये छोड़ गये। शायद उन्हें अपने पूर्ववर्ती अनिल कुंबले की 2008 में दिल्ली में हुई प्रेस कान्फ्रेंस की याद रही होगी। तब भी आस्ट्रेलिया से मैच ड्रा छूटा था लेकिन दिन के खेल के बीच में प्रेस बाक्स में सूचना आ गयी थी कि कुंबले ने संन्यास ले लिया है। इसके बाद कप्तान के रूप में उनके आखिरी संवाददाता सम्मेलन का मैच से कोई लेना देना नहीं रहा। भारतीय बहुत भावुक होते हैं और वहां भी भावनाओं का ज्वार हावी हो गया था। धौनी इस तरह की किसी भावुकता से बचना चाहते थे। उनकी भावनाएं उनकी अपनी हैं और वे उन्हें
सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं। जिंदगी का यह फलसफा शुरू से धौनी से जुड़ा रहा और देश की कप्तानी करते हुए भी उन्होंने यही रणनीति अपनायी। अगर वह सेनापति हैं तो फिर टीम की कमान कैसे संभालनी है इसका फैसला भी वह खुद करेंगे। ऐसा नहीं है कि धौनी आगे संवाददाताओं से रू ब रू नहीं होंगे लेकिन वह भी जानते हैं कि भावनाओं का ज्वार तब तक ठंडा पड़ चुका होगा। हम भारतीयों की भावनाएं होती भी क्षणिक हैं। 
         धौनी की टेस्ट कप्तानी पर पिछले कुछ समय से उंगली उठती जा रही थी। कहा जा रहा था कि वह टेस्ट मैचों में उतनी दिलचस्पी नहीं लेते जितनी की सीमित ओवरों के मैचों में। यह थोड़ा हास्यास्पद लगता है। ठीक है कि धौनी का कप्तानी रिकार्ड विदेशों में अच्छा नहीं रहा, वह कुछ अवसरों पर रक्षात्मक रवैया अपनाते रहे लेकिन टेस्ट क्रिकेट में दिलचस्पी नहीं लेना.....। जो लोग ऐसा कहते हैं उन्हें धौनी के पिछले दिनों के एक इंटरव्यू की याद दिलाना चाहूंगा। उसमें उन्होंने कहा था, ''मैंने अपनी पत्नी से कहा कि उनके लिये उसका नंबर तीसरे स्थान पर है, पहले देश, फिर माता पिता और उसके बाद। '' यह महज बयान नहीं हो सकता। अगर धौनी की यह सोच नहीं होती तो फिर वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिनिशर भी नहीं होते। सुनील गावस्कर ने सही कहा है कि "भारतीय क्रिकेट में धौनी के योगदान को आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते हो।" प्रत्येक व्यक्ति की कुछ कमजोरियां होती हैं और धौनी भी अपवाद नहीं है।
         
धौनी सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति हैं और जिंदगी अपनी तरह से जीना चाहते हैं। जब वह सभी प्रारूपों से संन्यास ले लेंगे और क्रिकेट से उनका खास वास्ता नहीं रहेगा तो हो सकता है कि उनका ठिकाना ढूंढने के लिये उनके करीबी को भी मशक्कत करनी पड़े। इसलिए उनका टेस्ट क्रिकेट से संन्यास का फैसला हैरानीपूर्ण नहीं था। धौनी ने कहा भी था कि जब उन्हें लगेगा कि अब संन्यास का वक्त आ गया है तो वह इसमें देर नहीं करेंगे और उन्होंने वही किया। वह चाहते तो भारी भरकम विदाई समारोह के साथ टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहते लेकिन वह हमेशा इस तरह के आयोजनों से बचने की कोशिश करते रहे हैं। वह टीम पर बोझ भी नहीं बनना चाहते थे। टेस्ट मैचों में न सिर्फ कप्तान बल्कि बल्लेबाज के रूप में भी वह अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे। इस साल 17 पारियों में वह केवल 534 रन बना पाये थे। पिछली पांच पारियों में उनका स्कोर था 0, 33, 0, 11 और नाबाद 24 रन। भारत उनकी कप्तानी में विदेशों में जीत के लिये तरस गया था। इसलिए उनका फैसला खेल और देश के हित के रूप में देखा जाना चाहिए।
      यदि वह दो साल पहले कप्तानी छोड़ देते तो फिर कौन कमान संभालता। क्या कोई इस जिम्मेदारी को निभाने के लिये तैयार था। आप वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर आदि का नाम ले सकते हो लेकिन उनकी तो खुद की टीम में जगह सुनिश्चित नहीं थी। वे खुद रन बनाने के लिये जूझ रहे थे। विराट कोहली तब वास्तव में अपरिपक्व थे। अब एडिलेड में पहली परीक्षा में पास होने के बाद धौनी को भी लग गया था कि कोई ऐसा शख्स टीम में मौजूद है जो अगुवाई कर सकता है। इसलिए यह सही समय है जबकि टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहा जा सकता है। सच में यह सही समय पर लिया गया बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला है। एक साहसिक फैसला। इसलिए मैं तो यहीं कहूंगा शाबाश धौनी।

                                                     धौनी से जुड़ी एक खास खबर

      

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